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जाना ही जीना है!

   आदतन मैं ठहरा रहा थामे अतीत का हाथ, और खींचता रहा ठहरना कुछ लकीरें मेरे आस-पास। और मेरे रुके रहने पर भी आते-जाते रहे निरंतर दुख, जैसे धूप, और छांव की तरह आता जाता रहा उल्लास। आदतन मैं ठहरा रहा और करता रहा इंतज़ार, इस बात से अनजान कि जाना उतार देता है ठहरने का भार, ठहरने की थकान। जैसे उधड़ी किताबों की जिल्द को, कपड़ों की कुतरनों को, ज़ख्मों को, घावों को सीते हुए छोड़ जाती है सुई, कुछ टांकों के निशान मैंने यह जाना कि ठीक उसी तरह जाना भी थोड़ा दर्द देकर,  कुछ निशान छोड़कर, सी देता है अतीत के शून्य को, खालीपन को, हर बार। और, हालाँकि, समय को रोक पाना नामुमकिन है, लेकिन अगर मैं  एक लम्हे से निकल जाता हूं, तो पाता हूं खुदको, अपने अस्तित्व के  सारे लम्हों में जीवित, एकसाथ । मैं अब जाने देता हूँ हर किसी को जब, जहां उन्हें जाना होता है, और मैं चला जाता हूँ हर उस जगह से जहां से मेरा जाना ज़रूरी है आदतों में कुछ मामूली फ़ेरबदल करके मैंने जाना की जाना ही जीना है! - गौतम
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Chappal chauraaste par

  Baat 2005 ki hai.  Purane hyderabad me Charminar road se lagi ek colony me teen kamron ka ek chhota sa makaan tha. Ghar ke aage ek bada aangan tha jisme ek badi si chattaan rakhi hui thi, pata nahi kab se yahan thi. Uske paas hi ek amrood ka ped tha, jo us chattaan ke saamne chhota hi maaloom padta tha. Ghar ke chaaron taraf fencing ki gayi thi jiske saath kataar me dher saare phoolon ke paudhe the. Ye bageecha us chhote se ghar ko behad khoobsurat bana deta tha.  Gate par name plate Farhan Akbaar ki thi, par us ghar me Aradhna Karandikar aur unka pariwar rehta tha. Aradhna ji peshe se hyderabad university me Hindustani classical sangeet ki professor thi.n aur saath hi colony ke bacchon ko classical singing bhi sikhaati thi.n Unki Zubaan me to saraswati rehti thi, par chehre par maano durga rehti thi. Jitne bandhe hue unke sur the, utna hi bandha hua tha unka kataaksh. Meri maanein to unhe sangeet ke saath saath kataaksh ka bhi professor declare kar dena chahiye. Riyaaz ke waqt agar

काली काली रेत

काली काली रेत, लहरें श्वेत, मद्धम ही मद्धम सूरज चाहे शाम पधारे या भुंसारे। जैसे जैसे रंग दरिया के पास जाता हूँ सात सुने थे एक एक की आस लगता हूँ मिलती न मुझको इंद्रधनुष की एक क्षण ज्योति देख, बस काली काली रेत ... रंग-ख्वाब को मृत्यु रेत पर अब दफनाता हूँ प्यासा है वो जिंदा होगा दांव लगाता हूँ प्यास बुझा भी न पाएंगी लहरें ये सुफ़ैद बस काली काली रेत... नील गगन से मेरा परिचय बड़ा निराला है मुझसे मिलकर उसका भी रंग काला काला है वो संजीदा होकर कैसे बरस रहा है देख बस काली काली रेत ... रूप अहं में क्या इठलाऊं, वैसी सूरत जैसा साया मैं उस गुल की ग्लानि हूँ जो इत्र कभी ना दे पाया तब भी ये गुलशन सकुचाए मेरी रंगत देख बस काली काली रेत ... मैने खूब तराशा पत्थर वो हृदय कभी ना बन पाया दरिया में फेंका पर उसने भी न इसको अपनाया टुकड़े उगल गई साहिल पर लहरें ये सुफ़ैद बस काली काली रेत ...  - गौतम  

पत्थर

"पत्थर"      घर से थोड़ी दूर पर ही सड़क खत्म हो जाती है और तीन अलग-अलग पगडंडियां तीन दिशाओं में खुल जाती हैं। एक जंगल के अंदर बसे छोटे से गाँव को जोड़ती है। एक शायद थोड़ी दूर जाकर गायब हो जाती होगी।और तीसरी वो है जिस पर नलिनी अक्सर आती-जाती रहती है। नलिनी एक १६ वर्ष की युवती है। वह अपने रोज़मर्रा के कामों से निजात पाकर अक्सर इस पगडण्डी से होते हुए गाँव के समीप बहने वाली धारा के किनारे बैठ जाती है। वहाँ उसे बहते पानी का शोर, पंछियों के चहचाने की आवाज़ें, खुला आसमान और गाँव की चहल-पहल से दूर अपनी एक छोटी सी दुनिया मिल जाती थी। नलिनी एक नृतिका है। उस धारा के किनारे बिखरी शीतल रेत पर अपने नृत्य का नित अभ्यास करना उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा था।      उसी किनारे पर एक पत्थर, जो कभी पानी के साथ बहकर वहाँ आया होगा, सदियों से स्थायी था। वह उस जगह को हर एक मौसम में देखा करता था। रात-दिन-दोपहर, पेड़-पौधे, जानवर, सन्नाटा और कोलाहल; वह किनारे के हर एक व्यवहार से बखूबी वाकिफ़ था। इसके अलावा भी उसकी स्मृति में ऐसी ही अनेक धाराएं, किनारे और आसमान अंकित थे। आखिर वह पहले एक बहुत बड़े भूखंड का हिस्सा जो

छोड़ो! सो जाओ, कितना जागोगे ?

आलम मंद, चुस्ती में अब बात नहीं है रात अँधेरी, जुगनू की औकात नहीं है

मेरे यार की मौत

एक कोने से मेरे यार की  मौत की खबर आयी है!

गुमनाम

क्या है वजह इल्म नहीं, इल्म नहीं क्या दोष है...