आदतन मैं ठहरा रहा थामे अतीत का हाथ, और खींचता रहा ठहरना कुछ लकीरें मेरे आस-पास। और मेरे रुके रहने पर भी आते-जाते रहे निरंतर दुख, जैसे धूप, और छांव की तरह आता जाता रहा उल्लास। आदतन मैं ठहरा रहा और करता रहा इंतज़ार, इस बात से अनजान कि जाना उतार देता है ठहरने का भार, ठहरने की थकान। जैसे उधड़ी किताबों की जिल्द को, कपड़ों की कुतरनों को, ज़ख्मों को, घावों को सीते हुए छोड़ जाती है सुई, कुछ टांकों के निशान मैंने यह जाना कि ठीक उसी तरह जाना भी थोड़ा दर्द देकर, कुछ निशान छोड़कर, सी देता है अतीत के शून्य को, खालीपन को, हर बार। और, हालाँकि, समय को रोक पाना नामुमकिन है, लेकिन अगर मैं एक लम्हे से निकल जाता हूं, तो पाता हूं खुदको, अपने अस्तित्व के सारे लम्हों में जीवित, एकसाथ । मैं अब जाने देता हूँ हर किसी को जब, जहां उन्हें जाना होता है, और मैं चला जाता हूँ हर उस जगह से जहां से मेरा जाना ज़रूरी है आदतों में कुछ मामूली फ़ेरबदल करके मैंने जाना की जाना ही जीना है! - गौतम